Mahakumbh News: लल्लनटॉप में साक्षात्कार देते हुए आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण जी धर्म पर कहा कि ‘धर्म वह है जो हमारे पहले की पीढ़ियां भी करती रही हैं और हमारे बाद की भी पीढ़ियां करती रहेंगी.’ उन्होंने आगे कहा कि ‘ जो हमारे पहले की पीढ़ियों ने नहीं किया और जो हमारे बाद की पीढ़ियां नहीं करेंगी, वह हमें क्यों चाहिए? धर्म तो परम्परा से चलता है. जो हमारे पहले की पीढ़ियों को नहीं मिला और जो हमारे आगे की पीढ़ियों को नहीं मिलने वाली हैं वह हमारे लिए हितकर होगा यह कैसे समझेंगे? ‘ वह यह भी कहते हैं कि ‘धर्म को अपनी कौतुक पारायणता के बाहर होना चाहिए तब यह ज्यादा दिनों तक ज्यादा जनों के लिए हितकारी बना रह पाएगा नहीं तो यह उन्माद का कारक बन जायेगा और हमारे सामने अवांछित स्थितियां आने लगेगीं.’
किसी अतिथि के आगमन पर अपना आसन रिक्त कर देना, प्रणाम के क्रम में करबद्ध होना, चरण स्पर्श करना, पंचांग या साष्टांग करना, माता पिता एवं गुरुजनों का सम्मान करना, सूर्यादि देवताओं को जल देना, जल, गौ और भूमि के प्रति मातृभाव रखना आदि अनेक बातों के ज्ञान का आधार केवल परम्परा है. हमारे पिता, दादा आदि ज्येष्ठ को हमने जो करते हुए देखा वह हमने अंगीकार कर लिया. हमने व्रत, उपवास, देवी, देवता आदि की प्राप्ति भी परम्परा से ही की. हमारे पिता एकादशी करते हैं इसलिए मैं भी करता हूं. गणेश चतुर्थी का व्रत सास अपने बहुओं को परम्परा से देती है. तीज, वट सावित्री, जीवित्पुत्रिका, नवरात्रि, शिवरात्रि आदि अनेक व्रत अनुष्ठान ऐसे हैं जो परम्परा से प्राप्त हैं. कल्पवास भी ऐसा ही एक पारम्परिक अनुष्ठान है.
कल्पवास और कुम्भ (Mahakumbh) की प्राचीनता का विषय अत्यधिक लम्बा हो जायेगा परन्तु यह कहना आवश्यक है कि कल्पवास वानप्रस्थ का अभ्यास था, था? हां! क्योंकि वर्तमान समय में पूरी गृहस्थी कल्पवास का अंग बन गई है. पौष की पूर्णमा से माघ की पूर्णिमा तक चलने वाला यह कल्पवास न सूर्य की प्रतीक्षा करता है और न बृहस्पति की.
Mahakumbh: कुम्भ होने के तीन कारण
कुम्भ के आयोजन में निश्चित ही खगोलीय घटनाओं का विशेष योगदान होता है. इससे जुड़ी तीन कथाएं विशेष रूप से प्रचलित हैं. प्रथम कथा देवराज इन्द्र से सम्बन्धित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्यमाला का अपमान हुआ. इन्द्र ने उस माला को अपने हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे पैरों तले कुचल दिया. दुर्वासा ऋषि ने इसके परिणामस्वरूप भयंकर शाप दिया जिसके कारण संसार में दुर्भिक्ष पड़ गया. अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई. तत्पश्चात् नारायण ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी को प्रकट किया. उनकी कृपा से वृष्टि हुई और कृषकों का कष्ट दूर हुआ. अमृत पान से वंचित असुरों ने कुम्भ को नागलोक में छिपा दिया. गरुड़ ने वहाँ से उसका उद्धार किया और उसे क्षीरसागर तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर कलश को रखा, वे ही स्थल ‘कुम्भ पर्व’ के तीर्थस्थल बन गये.
इस कथा के अनुसार महर्षि कश्यप की दो पत्नियों कद्रू और विनता के मध्य सूर्य के अश्वों का वर्ण काला है या सफेद. इस विवाद को लेकर यह शर्त रखी गई की जो हारेगी वह दासी बनकर रहेगी. इस शर्त के परिणामस्वरूप विनता के हार जाने के कारण उसे दासी बन कर रहना पड़ा. उस दासीत्व से तभी मुक्ति मिल सकती थी, जब नागलोक में छिपाये गये कुम्भ को कश्यप मुनि की पत्नी कद्रू के पास लाया जाय. उस अमृत कलश को लाने हेतु और अपनी माँ को दासीत्व से मुक्त कराने के लिये पक्षीराज गरुड़ ने संकल्प किया. नागलोक से वासुकि से संरक्षित उस अमृत-कलश को जब गरुड़ उत्तराखंड से गंधमादन पर्वत पर कश्यप मुनि के पास ले जा रहे थे तो वासुकि द्वारा इन्द्र को सूचित किया गया और उन्होंने चार बार आक्रमण किया. इन्द्र के द्वारा चार जगहों पर रोके जाने के कारण जो अमृत-कलश की बूँदे वहाँ पर छलकीं उसके कारण वहाँ कुम्भ पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई. गरुड़ ने उस अमृत-कुम्भ के अन्ततः अपनी माँ के दासीत्व से मुक्त कराने के लिये कश्यप मुनि के पास तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न किया और सफल हुए.
तृतीय कथानुसार देवासुर संग्राम में 14 रत्नों में अमृत-कलश निकलने पर धन्वन्तरि द्वारा देवताओं को देने, विष्णु द्वारा मोहिनी रुप धारण करके देवताओं को अमृत पान कराने, राहु द्वारा अमृत पान करने, इन्द्र-पुत्र जयन्त द्वारा अमृत-कुम्भ छीनकर भागने, जैसी कथाओं से सम्बद्ध है. उसकी रक्षा का भार सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति और शनि को सौंपा गया था. जयन्त द्वारा ले जाये जाते हुए उस अमृत-कुम्भ को चार स्थलों पर रखने और उन-उन स्थलों पर अमृत की बूँदे गिरने के कारण कुम्भपर्व मनाये जाने की परम्परा प्रारम्भ हुई.
प्रयागराज में आयोजित होने वाले कुम्भ के विषय में कहा गया है कि –
मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावस्या तदा योगः कुम्भाख्य तीर्थनायके।।
मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च वृहस्पतौ।
कुम्भ योगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यति दुलभः।।
Mahakumbh : 144 वर्ष का महाकुंभ का सच
Mahakumbh: यह कुम्भ 12 वर्ष पर ही लगे ऐसा आवश्यक नहीं. आचार्य प्रवर प्रो. विनय कुमार पाण्डेय का कहना है कि महाकुंभ के 12X12 साल की गणना के हिसाब से 144 साल बाद खास संयोग बनने को ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सही नहीं माना जा सकता है. कुंभ हर 12वें साल ही लगता है, यह सही नहीं है. राशियों में राजसी ग्रहों की स्थिति ही तय करती है कि कुंभ कब होगा. इस कारण 7 वां अथवा 8 वां कुंभ 11 साल में ही होता है. 12 साल के हिसाब से 1966 में कुंभ होना चाहिए था, लेकिन काशी के धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी की ज्योतिषीय गणना के आधार पर 1965 में ही कुंभ हुआ था. इसका वर्णन पुस्तक ‘धर्मकृत्योपयोगिताथ्यादि निर्णयः कुंभपर्वनिर्णयश्च’ में मिलता है. 2021 में हरिद्वार कुंभ भी 11वें साल में लगा था. इससे पहले उज्जैन और नासिक में भी 11वें साल में कुंभ मेले लग चुके है.
ऐसे में 144 साल में लग रहे और वह पीढ़ी बनने के लिए प्रयाग मत आइए. प्रयाग तीर्थ राज हैं. वेद, पुराण, शास्त्रादि प्रयाग की महिमा कहते थक नहीं रहे हैं. गंगा यमुना यही हैं. बाबा तुलसी कहते हैं –
माघ मकर गति रवि जब होई।
तीरथ पतिहिं आव सब कोई॥’
स्कन्द पुराण में वर्णन प्राप्त होता है कि –
माघे मासे गंगे स्नानं यः कुरुते नरः.
युगकोटिसहस्राणि तिष्ठंति पितृदेवताः..
ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णन प्राप्त होता है कि –
प्रयागे माघमासे तु स्नात्वा पार्थिवमर्दनः
सर्वपापैः प्रमुच्येत पितृभिः सह मोदते
अतएव प्रयाग की महिमा कुम्भ, माघ तथा अन्य दिनों में विशेष ही है. प्रयाग तीर्थराज है. तीर्थराज सदैव तीर्थराज है. प्रथम यज्ञ की भूमि, महर्षि भारद्वाज की भूमि, गंगा एवं यमुना का संगम स्थल, अक्षयवट की भूमि, नागराज वासुकी की भूमि, भक्तराज हनुमान की भूमि सदैव पुण्य फल दाई है भीड़ का हिस्सा मत बनिए. तीर्थ में पर्यटकों की भीड़ में मत आइए. तीर्थ में तीर्थ करने तीर्थयात्री की तरह आइए.
- शिवांश तिवारी ‘कान्हा’
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